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Monday, 25 July 2016

छाओं है जो हम सबकी...


हवा में तैरती ,
कभी नदी के किनारे ,
तो कभी आसमान के तले  ... 
एक मासूम सी हंसी छुपाये ,
जो आगे बढ़ रही है ये हर गम को भुलाए  ... 
कभी बातें करने से डरती है ,
कभी लड़खड़ा के चलती है ,
तो कभी थर थराके फिसलती है  ... 
न जाने क्यों छुपना चाहती है ,
न जाने क्यों थक के रुक सी जाती है  ... 
सूरज से बचना चाहती है ,
तो कभी अंधेरे में भी डराती है  ... 
बिन कहे भी तू मुझको ,
एक आराम का एहसास दे जाती है  ... 
धूप लगे जो मुझको ,
जलने से मुझे बचाती है  ... 
शाम ढलते ही तू मुझसे ,
न जाने क्यों मोह छुड़ाती है ...
तू छाओं है जो हम सबकी ,
तो रूठ के क्यों चली जाती है  ... 
तू छाओं है जो हम सबकी ,
तो दोस्त बनाके क्यों रुलाती है  ... 




This post is written for the #HalfMarathon blogging challenge at #Blogchatter DailyChatter. Suggestions and feedback are most welcome.