रात की चादर ओढ़े हुए …
ये एक हवा ही तो है
जो बहे जा रही है ,
इठला रही है , शर्मा रही है ....
पर फिर भी सन्नाटे में ,
एक संदल सा एहसास पहुंचा रही है ....
पहर दर पहर जो इसने है सीखा मुह मोड़ना ,
शाम के सहर में भी अपनों का साथ छोड़ना …
कभी बिना कहे ओझल होना ,
तो कभी कहीं एक सर्दी का एहसास दिलाना …
हर मौसम में एक अनोखा सा रूप दिखा रही है ,
तो कभी चुप चुपके सबको सता रही है …
रात की चादर ओढ़े हुए …
एक हवा ही तो है
जो बहे जा रही है , इठला रही है
शर्मा रही है ....