किताबों से डरते थे जो बच्चे ...
आज आशियाँ बसा रहे हैं ...
मासूम सी उँगलियों से जिन्होंने कभी
दरिया के किनारे महल बनाया था ...
आज उस महल को हकीकत में सजा रहे हैं ...
आँखों में शैतानी रहती थी जिनके कभी ...
आज अपने सपनो को बना रहे हैं ...
डरते थे जो अपने बड़ों से कभी ...
आज उनका सहारा बनते जा रहे हैं ...
खिलौनों से जो खेलते थे जब वो ...
आज अपने बचों को खिला रहे हैं ...
बचपन के हर एक पल को लिए ...
आज नयी खुशियों को लिए ...
चले जा रहे हैं वो ...
बढे जा रहे हैं वो ...